प्रतिष्ठाचार्य मूर्ति की प्रतिष्ठा के समय जिस मंत्र से उसे अभिमंत्रित कर उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं , वह मंत्र उस मूर्ति में सर्वांगतः समाविष्ट हो जाता है। उसके प्रभाव से प्रतिष्ठित मूर्ति में इतनी शक्ति आ जाती है कि यदि दर्शनार्थी एकाग्रतापूर्वक राग-द्वेष-विहीन होकर पूर्ण भक्ति-भरित भाव से उस मूर्ति के दर्शन करता है, तो उस मंत्र-शक्ति का प्रभाव, नेत्र-दृष्टि-पथ के माध्यम से दर्शनार्थी के हृदय में प्रवेश कर जाता है। उस मंत्र के प्रभाव से दर्शनार्थी स्वस्थ, ऊर्जस्वित एवं प्रमुदितमन बना रहता है। उसका रक्तचाप सम रहता है और उसकी बुद्धि निर्मल एवं कुशल रहती है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि वास्तुविद्या और शिल्प की दृष्टि से यदि मूर्ति निर्दोष हो, मंदिर-वेदिका भी शास्त्रानुकूल निर्मित हो, साथ ही प्रतिष्ठाचार्य भी सुयोग्य विद्वान, निर्लोभी तथा सच्चरित्र हों, उन्हें मंत्र-सिद्धि हो और उनका मंत्र-प्रक्षेपण भी विधि-सम्मत तथा उच्चारण निर्दोष हो, तो वह मूर्ति निश्चित रूप से सिद्धिदायक और चमत्कारी बन जाती है। खोजने पर इसके अनेक उदाहरण वर्तमान में भी उपलब्ध हो सकते हैं।
तीर्थयात्रा करने वालों की विविध मनोकामनाएँ पूर्ण होती हुर्इ भी देखी-सुनी जाती हैं। इसका मूल कारण पूर्वोक्त मंत्र-शक्ति ही है। उन मूर्तियों के दर्शनों से आत्मिक शांति एवं सुख-समृद्धि प्राप्त होती है। शास्त्रोक्त-विधि से निर्मित मूर्ति की वीतरागता भी व्यक्ति की सहज सात्विकता, कष्टसहिष्णुता एवं ‘सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदम्’ भावनाओं को प्रबल बनाती है। यही कारण है कि तीर्थयात्रा के लिए हम लालायित बने रहते हैं।
शास्त्र-भक्ति और शास्त्र-स्वाध्याय के महत्व को तीर्थंकर की भक्ति से भी अधिक माना गया है क्योंकि शास्त्र-स्वाध्याय से ही जीव को निज स्वरूप का भान होता है |
– संवेदनशील पाश्चात्य वैज्ञानिकों के निष्कर्ष
Tīrthayātrā karanē vālōṁ kī vividha manōkāmanā’ēm̐ pūrṇa hōtī hui bhī dēkhī-sunī jātī haiṁ. Isakā mūla kāraṇa pūrvōkta mantra-śakti hī hai. Una mūrtiyōṁ kē darśanōṁ sē ātmika śānti ēvaṁ sukha-samr̥d’dhi prāpta hōtī hai. Śāstrōkta-vidhi sē nirmita mūrti kī vītarāgatā bhī vyakti kī sahaja sātvikatā, kaṣṭasahiṣṇutā ēvaṁ ‘satvēṣu maitrī guṇiṣhu pramōdam’ bhāvanā’ōṁ kō prabala banātī hai. Yahī kāraṇa hai ki tīrthayātrā kē li’ē hama lālāyita banē rahatē haiṁ.
Śāstra-bhakti aura śāstra-svādhyāya kē mahatva kō tīrthaṅkara kī bhakti sē bhī adhika mānā gayā hai kyōṅki śāstra-svādhyāya sē hī jīva kō nija svarūpa kā bhāna hōtā hai.
– Conculsion of Western sensitive Scientists