१. प्रासुक जल (कुंए या बोरिंग का जल आवश्यक मात्रा में एक बड़े बर्तन में, दोहरे छन्ने से छान कर, जिवाणि वापिस कुएं में डालें, छने पानी को गर्म करके पुनः ठंडा होने छोड़ दें| (पानी गर्म करने की सुविधा न होने पर लौंग डाल कर भी जल को प्रासुक किया जाता है )|
२. द्रव्य-बर्तन: प्रासुक जल से धुली एक थाली, दो कलश, दो छोटी चम्मचें, चन्दन कटोरी, एक सूखा छन्ना|
३. पूजा-बर्तन: प्रासुक जल से धुली दूसरी थाली, एक ठोना (आसिका), एक कटोरा, धूपदान (धुपाडा)|
४. चन्दन लेप (सिल पर अथवा खरड में केशर के कुछ रेशे भिगोएँ और चन्दन की लकड़ी से घिसने से बना लेप चन्दन-कटोरी में समेट लें)|
५. अक्षत (छान-बीन कर भली-भांति साफ़ किये हुए जीव-जंतु रहित अखंड चावल प्रासुक जल से धो लें)|
६. पुष्प ( तीन चौथाई अक्षत खरड/सिल पर डाल कर केसरिया रंग का बना लें)|
७. नैवेद्य (छोटी छोटी चिटकें प्रसुक जल से धो लें)|
८. दीप (उपरोक्त कुछ चिटकें खरड में डाल कर केशरिया रंग की कर लें)|
९. धूप (नारियल के सूखे गोले की छीलन का बारीक चूर्ण)|
१०. फल (छिलके वाले सूखे बादाम, लौंग, छोटी इलायची, कमल गट्टा, पूजा की सुपारी आदि प्रासुक जल से धो लें)|
११. अर्घ्य ( ऊपरोक्त आठों द्रव्यों के कुछ अंशों का मिश्रण)|
१२. जाप्य-माला |
१३.एक छन्ना शुद्धता बनाये रखने के लिए |
१४.पूजा पुस्तक, स्वाध्याय ग्रन्थ आदि: जैन पूजा-साहित्य-ग्रन्थ भण्डार के दर्शन कर, कायोत्सर्ग–पूर्वक याचना कर इन्हें उठाएं व विनय पूर्वक पूजा-स्थल पर निर्जन्तु व सूखा स्थान देख कर रखें |
दोनों कलशों में प्रासुक जल भरें, उन पर चन्दन-लेप से स्वास्तिक मांड कर चम्मच डाल कर द्रव्य-थाली में रखें | दाहिनी ओर रखे कलश में चन्दन लेप की कुछ बूँदें घोल दें, इनके दाहिनी ओर क्रमशः अक्षत पुंज, पुष्प पुंज, नैवेद्य, दीप, धूप एवं फल रखें और बीच में अर्घ्य-पुंज सजाएं|
शुद्ध कपड़े से पोंछकर साफ की हुई थाली में बीचोंबीच चन्दन लेप से अनामिका उँगली से या लौंग से सिद्ध-शिला समेत स्वास्तिक (चित्रानुसार) मांडें| पोंछे हुए ठोने (आसन/ आसिका) में आठ पंखुड़ी वाला कमल पुष्प मांड कर स्वास्तिक के ऊपर वाले खाली स्थान में रखें, उसी के बराबर जल व चन्दन चढाने के लिए मंगल-चिह्न-रूप पुष्प मांड कर कटोरा रखें| (कहीं कहीं ठोने व कटोरे में भी स्वास्तिक अथवा ॐ/ओं/श्री मांडने का चलन है)|
(जिनेन्द्र-प्रभु की पूजन ‘कमलासन’ पर विराजमान कर होती है (सिंहासन पर नहीं), ठोने पर कमल इसी भाव से मांडते हैं, तथा स्वास्तिक भगवान के निर्वाण-स्थान पर इंद्र द्वारा बनाया गया शाश्वत चिह्न है| हमारी द्रव्य व भाव पूजाओं की समस्त सामग्री इसी चिह्न पर चढाने के भाव करें)|
जहाँ धूप खेने की परंपरा है, धूपायन (धुपाड़ा, वह पात्र जिसमें लकड़ी के अंगारे हों) भी रखते हैं| आज के समय में अग्नि के खतरों व प्रदूषण के विचार से, अग्नि में खेने के विकल्प के रूप में धूप को पूजन-थाली में या अलग पात्र में चढ़ाया जा रहा है| अग्निकायिक जीवों की रक्षा तो है ही, धूप की शुद्धता में संदेह के समाधान रूप में नारियल की छीलन, सफेदा के सूखे वृक्ष की छीलन, अथवा लौंग के चूरे का प्रयोग होता देखा जा रहा है| बाज़ार में मिलने वाली धूप का प्रयोग न करें|
पूजा विधि
१. पूजन-प्रतिज्ञा व स्वस्ति (मंगल) याचना: खड़े रह कर कायोत्सर्ग करें व विनय पाठ पढें। आगे पुस्तक में दिए क्रम से अनादि-मूल-मंत्र, चत्तारि दंडक,. अपवित्र: पवित्रो वा…. के मंद मधुर स्वर में गायन कर पुष्प चढ़ायें।क्रमश: पंचकल्याणक अर्घ्य, पंच-परमेष्ठी अर्घ्य, श्रीजिनसहस्रनाम अर्घ्य और जिनवाणी के अर्घ्य चढ़ायें । पूजन-प्रतिज्ञा पाठ पढ़ पुष्पांजलि करें। चौबीस तीर्थंकर स्वस्ति विधान (श्री वृषभो नः…), पुनः परम-ऋषि स्वस्ति विधान (नित्याप्रकम्पाद्….)पूरे पूरे पढ़ते जाएँ व स्वस्ति शब्द उच्चारण करते ही पुष्प चढाते जाएँ।
२. पूजा प्रारंभ : जिस पूजनीय (मूल नायक, चौबीस तीर्थंकर आदि ) की पूजा करनी हो, कम से कम नौ अखंड पुष्प (केशरिया चावल अथवा लौंग) दोनों हथेलियों के बीच, बंद कमल के आकार में रख कर, आह्वानन-मन्त्र बोलते हुए आकाश से उन का आह्वान किया जाता है (पुकारा जाता है) ठोने में उन पुष्पों को स्थापन–मंत्र बोलते हुए चढाना उन के स्थापन (विराजने) का भाव देता है, और सन्निधिकरण-मंत्र बोलना उन्हें ह्रदय में बसाने का भाव देता है। तब ही अष्ट-द्रव्यों से पूजा आरम्भ होती है| (ये तीन मंत्र अष्टम विभक्ति में होते हैं, शेष द्रव्यों के अर्पण-मंत्र चतुर्थी विभक्ति में होते हैं | बोलते समय यहाँ विशेष सावधानी आवश्यक है)|
नित्य-पूजन के नियम की पूर्ति के लिए सर्व प्रथम श्री जिनेन्द्र देव की, शास्त्रजी की, व गुरुवर (गणधर देव अथवा आचार्य-उपाध्याय-साधू ) की भक्ति पूर्वक पूजन अलग-अलग अथवा एक साथ समुच्चय-पूजा के रूप में की जाती है| समुच्चय पूजा हेतु अनेकों वैकल्पिक रचनाएं प्रचलन में हैं जैसे, प्रथम देव…..(द्यानत राय जी ), देव-शास्त्र-गुरु नमन करि….(सच्चिदानंदजी), केवल रवि …..(युगलजी), नव-देवता पूजा (आ. ज्ञानमती जी)|
३. अष्ट-द्रव्यों से पूजन: इस में क्रमशः जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप एवं फल आदि द्रव्यों के पद एक एक कर गाते हैं, व उसी द्रव्य का मंत्र बोल कर वह द्रव्य चढ़ाते हैं| इसी विधि से अर्घ्य भी चढाते हैं और पूजित पात्र की गुणमाल (जयमाला) गा कर पूर्णार्घ्य भी। तीर्थंकरों की पूजाओं में उन के पाँचों कल्याणकों के स्मरण-भाव से प्रत्येक के अर्घ्य भी चढ़ाये जाते हैं| प्रत्येक पूजा के अंत में आशीर्वाद-मंत्र पढ़ कर पूजित प्रभु के आशीर्वाद स्वरूप स्वयं पर पुष्प-क्षेपण किया जाता है| विभिन्न पूजाओं का क्रम हर स्थान एवं समय अनुसार भिन्न हो सकता है।
अष्ट-द्रव्य चढाते हुए क्या भावना करें:
प्रत्येक द्रव्य भगवान के समक्ष अर्पित करते हुए मन-रूपी सागर में निम्न प्रकार भक्ति की लहरें उठनी चाहिए अर्थात् भावना भानी चाहिए –
जल चढ़ाते समय : – हे प्रभु! आपने जन्म, जरा एवं मरण समाप्त कर दिया है और संसार के सभी कष्टों से मुक्ति पायी है। अत: आप शीतल सागर हो एवं निर्मल ज्योति हो। मुझे भी संसार में बार-बार न आना पड़े अत: जन्म-जरा-मृत्यु के विनाश हेतु मैं आपको जल चढ़ाता हूँ।
चन्दन चढ़ाते समय : – हे प्रभु! संसार के सभी प्राणी तरह-तरह के कष्टों से दु:खी हैं। आपने इन सबको समूल नष्ट कर दिया है। मेरा भी चिन्ताओं का ताप और इच्छा रूपी दाह समाप्त हो जाय। इसी भावना को लेकर आप के समक्ष आया हूँ और दाह विनाशक चन्दन लाया हूँ कि चन्दन चढ़ाने से मेरा भी संसार का दाह और ताप समाप्त हो जाए।
अक्षत चढ़ाते समय : – हे प्रभु! आपने संसार की सब व्याकुलताएँ एवं मोह को नष्ट कर अक्षय पद प्राप्त किया है। मुझे भी अक्षय पद प्राप्त हो अत: मैं आपको समर्पण करने ‘अक्षत’ लाया हूँ। मैं निवेदन करता हूँ जिस तरह रागरूपी छिलका चावल से अलग हो गया है और यह दुबारा अंकुरित नहीं हो सकता है, अर्थात् इसकी आत्मा को अक्षय पद की प्राप्ति हो गर्इ है। उसी प्रकार मेरी आत्मा से कर्मों का भार क्षय हो जाए और मुझे भी अक्षय पद प्राप्त हो जाए। इसी भावना से मैं अक्षत समर्पित कर रहा हूँ।
पुष्प चढ़ाते समय : – हे काम विजयी प्रभु! आपने संसारी आकर्षणों पर विजय प्राप्त कर ली है, अर्थात् कामादिक सांसारिकता को जीत लिया है। जिस तरह पुष्प पर आकर्षण होता है और आकर्षण से तितली और भोंरे उस पर बैठकर अपनी जान गँवाते हैं। उसी प्रकार मैं काम-वासना की ओर आकर्षित होकर दु:खी हूँ। अत: काम-बाणों के विनाशन हेतु मैं आपको पुष्प अर्पित करता हूँ कि मैं भी आपकी तरह इसको जीत सकूँ और मोक्षमार्ग पर बढ़ सकूँ।
नैवेद्य चढ़ाते समय : – हे क्षुधा विजयी! आपने भूख के रोग को समाप्त कर दिया है, भूख को शांत कर लिया है| मैं भी इस क्षुधा रोग से पीड़ित हूँ। अनादिकाल से लगे इस क्षुधारोग को नष्ट करने की इच्छा से यह क्षुधा निवारक सुन्दर नैवेद्य आपको समर्पित करता हूँ, मेरा क्षुधा रोग सदा के लिए शांत हो जाये।
दीप चढ़ाते समय : – हे प्रभु! आपने अपने आंतरिक अज्ञान मोह अंधकार का नाश कर दिया है। अत: आप अतुल तेजयुक्त हो गए हैं। यह प्रकाश मुझे भी प्राप्त हो, ताकि मैं अपने आपको जान सकूँ, मोह अंधकार का नाश कर सकूँ। अत: मैं लौकिक उजाला करने का प्रतीक यह दीपक आपके समक्ष समर्पित कर रहा हूँ कि मुझे भी मुक्ति पथ मिले एवं मोह अंधकार का नाश हो।
धूप चढ़ाते समय : – हे प्रभु! आपने कर्म शत्रुओं को अपने तप के द्वारा नष्ट कर दिया है। मैं आपकी शरण आया हूँ कि मेरे कर्म कलंक जल जायें। अत: धूप चढ़ाने आया हूँ कि मेरे भी आठों कर्म भक्ति-धूप की ज्वाला से नष्ट हो जायें।
फल चढ़ाते समय : – हे प्रभु! आपने अपने लक्ष्य परम शांति को प्राप्त कर लिया है। अविनाशी मुक्तिरूपी फल को प्राप्त कर आप तो अपने स्वाद में मग्न हो चुके हैं। आपने जिस फल को अपने पुरुषार्थ के बल से प्राप्त कर लिया है। उसी फल की प्राप्ति के लिए यह लौकिक फल आपके चरणों में चढ़ाने आया हूँ। मुझे मुक्ति फल प्राप्त हो जाय यही आपसे विनती है।
अन्त में, अर्घ्य चढ़ाते समय : – हे प्रभु! आप अनर्घ्य-पद विभूषित, वीतराग विज्ञानी केवली भगवान हैं। आप जैसा अनर्घ्य पद मुझे मेरे पुरुषार्थ से पैदा हो जाए, इसी भावना से यह पुनीत अर्घ्य आपके चरणों में समर्पित कर रहा हूँ।
प्रत्येक द्रव्य चढ़ाते समय जो भाव बताए हैं, उन ही भावों से पूजन करें तो निश्चित ही भक्त से भगवान बन जाएंगे, संसारी से मुक्त बन जाऐंगे। पूजा वीतराग देव के लिए नहीं बल्कि अपनी निराकुलता प्राप्ति के लिए होती है। भगवान कर्ता या दाता नहीं है, उनके गुणों में अनुराग-भक्ति से ही सब कार्य सिद्ध होते हैं, परन्तु भक्ति के प्रवाह में भी मांगना उचित नहीं है।
मनवाँछित सब कुछ मिले, श्रावक जानो सोय।।
४. पूजन-क्रिया समाप्ति – यह, समुच्चय महार्घ्य चढ़ा कर, शान्तिपाठ, कायोत्सर्ग और विसर्जन-पाठ गायन से होती है। पूजा-विसर्जन क्रिया ठोने पर अखंड पुष्प क्षेपण से होती है। इसके उपरान्त ठोने में पूजित जिनवर के चरण-चिह्न-प्रतीक पुष्पों के अभिषेक-भाव से किंचित जलधारा करते हैं जिस से ठोने का मांडना विलीन हो जाता है और यह जल गंधोदक के रूप में ग्रहण किया जाता है। वेदी की तीन प्रदक्षिणा देने के उपरांत पञ्च –परमेष्ठी आरती की जाती है| समय की उपलब्धता ध्यान में रख मूल नायक आदि की आरती भी की जाती है|
५. पूजा-पुस्तक वापसी – विनय सहित पूरी पुस्तक में फंसे चावल आदि को अच्छी तरह से झाड़ लें, पुस्तक नम हो गई हो तो कुछ देर धूप/हवा में रख दें, फट गई हो तो मरम्मत कर दें; फिर ग्रन्थ भंडार में उस के निश्चित क्रम-स्थान पर विनय सहित वापस रखें और कायोत्सर्ग कर भंडार के पट बंद करें|
चावल आदि के दाने पड़े रह जाने से पूजा पुस्तकों/भंडार में जीवाणु व चूहों की संभावना होती है| अतः भली भांति देख भाल कर सावधानी से शुद्ध पूजा पुस्तकें उठाएं एवं रखें| असावधानी वश, उन में कभी कभी अशुद्ध पुस्तकादि अन्य साहित्य भी रखे देखने में आते हैं| भंडार की नियमित जांच व झाड-पोंछ भी पूजन का अंग है| घर से पूजन के लिए आते समय पूजा सामग्री के साथ एक पेन और डायरी अवश्य लाएं, अभिषेक-पूजन क्रिया के दौरान उपजे प्रश्न/शंका व सुझाव नोट कर, समाधान का उद्यम करना परिणाम-विशुद्धि वर्धक होता है|
Sāmagrī
1. Prāsuka jala (Ku’ēṁ yā bōriṅga kā jala āvaśyaka mātrā mēṁ ēka baṛē bartana mēṁ, dōharē channē sē chāna kara, jivāṇi vāpisa kum̐ē ḍālēṁ, chanē pānī kō garma karakē punaḥ ṭhaṇḍā hōnē chōṛa dēṁ| (pānī garma karanē kī suvidhā na hōnē para lauṅga ḍāla kara bhī jala kō prāsuka kiyā jātā hai).
2. Dravya-bartana: Prāsuka jala sē dhulī ēka thālī, dō kalaśa, dō chōṭī cam’macēṁ, candana kaṭōrī, ēka sūkhā channā.
3. Pūjā-bartana: Prāsuka jala sē dhulī dūsarī thālī, ēka ṭhōnā (āsikā), ēka kaṭōrā, dhūpadāna (dhupāḍā).
4. Candana lēpa (sila para athavā kharaḍa mēṁ kēśara kē kucha rēśē bhigō’ēm̐ aura candana kī lakaṛī sē ghisanē sē banā lēpa candana-kaṭōrī mēṁ samēṭa lēṁ).
5. Akṣata (chāna-bīna kara bhalī-bhānti sāfa kiyē hu’ē jīva-jantu rahita akhaṇḍa Cāvala prāsuka jala sē dhō lēṁ).
6. Puṣpa (tīna cauthā’ī akṣata kharaḍa/sila para ḍāla kara kēsariyā raṅga kā banā lēṁ).
7. Naivēdya (chōṭī chōṭī ciṭakēṁ prasuka jala sē dhō lēṁ).
8. Dīpa (uparōkta kucha ciṭakēṁ kharaḍa mēṁ ḍāla kara kēśariyā raṅga kī kara lēṁ).
9. Dhūpa (nāriyala kē sūkhē gōlē kī chīlana kā bārīka cūrṇa).
10. Phala (chilakē vālē sūkhē bādāma, lauṅga, chōṭī ilāyacī, kamala gaṭṭā, pūjā kī supārī ādi prāsuka jala sē dhō lēṁ).
11. Arghya (ūparōkta āṭhōṁ dravyōṁ kē kucha anśōṁ kā miśraṇa).
12.Jāpya-mālā
13.Ēka channā śud’dhatā banāyē rakhanē kē li’ē |
14.Pūjā pustaka, svādhyāya grantha ādi: Jaina pūjā-sāhitya-grantha bhaṇḍāra kē darśana kara, kāyōtsarga–pūrvaka yācanā kara inhēṁ uṭhā’ēṁ va vinaya pūrvaka pūjā-sthala para nirjantu va sūkhā sthāna dēkha kara rakhēṁ.
Dravya-Thāla Sajānē Kī Vidhi
Dōnōṁ kalaśōṁ mēṁ prāsuka jala bharēṁ, una para candana-lēpa sē svāstika māṇḍa kara cam’maca ḍāla kara dravya-thālī mēṁ rakhēṁ. Dāhinī Ōra rakhē kalaśa mēṁ candana lēpa kī kucha būm̐dēṁ ghōla dēṁ, inakē dāhinī ōra kramaśaḥ akṣata pun̄ja, puṣpa pun̄ja, naivēdya, dīpa, dhūpa ēvaṁ phala rakhēṁ aura bīca mēṁ arghya-pun̄ja sajā’ēṁ.
Pūjā-Thāla Sajānē Kī Vidhi
Śud’dha kapaṛē sē pōn̄chakara sāpha kī hu’ī thālī mēṁ bīcōmbīca candana lēpa sē anāmikā um̐galī sē yā lauṅga sē sid’dha-śilā samēta svāstika (Citrānusāra) māṇḍēṁ| pōn̄chē hu’ē ṭhōnē (āsana/ āsikā) mēṁ āṭha paṅkhuṛī vālā kamala puṣpa māṇḍa kara svāstika kē ūpara vālē khālī sthāna mēṁ rakhēṁ, usī kē barābara jala va candana caḍhānē kē li’ē Maṅgala-cihna-rūpa puṣpa māṇḍa kara kaṭōrā rakhēṁ| (kahīṁ kahīṁ ṭhōnē va kaṭōrē mēṁ bhī svāstika athavā’om/ōṁ/śrī māṇḍanē kā calana hai).
(jinēndra-prabhu kī pūjana ‘kamalāsana’ para virājamāna kara hōtī hai (sinhāsana para nahīṁ), ṭhōnē para kamala isī bhāva sē māṇḍatē haiṁ, tathā svāstika bhagavāna kē nirvāṇa-sthāna para indra dvārā banāyā gayā śāśvata cihna hai| hamārī dravya va bhāva pūjā’ōṁ kī samasta sāmagrī isī cihna para caḍhānē kē bhāva karēṁ).
Jahām̐ dhūpa khēnē kī paramparā hai, dhūpāyana (dhupāṛā, vaha pātra jisamēṁ lakaṛī kē aṅgārē hōṁ) bhī rakhatē haiṁ. Āja kē samaya mēṁ agni kē khatarōṁ va pradūṣaṇa kē vicāra sē, agni mēṁ khēnē kē vikalpa kē rūpa mēṁ dhūpa kō pūjana-thālī mēṁ yā alaga pātra mēṁ caṛhāyā jā rahā hai. Agnikāyika jīvōṁ kī rakṣā tō hai hī, dhūpa kī śud’dhatā mēṁ sandēha kē samādhāna rūpa mēṁ nāriyala kī chīlana, saphēdā kē sūkhē vr̥kṣa kī chīlana, athavā lauṅga kē cūrē kā prayōga hōtā dēkhā jā rahā hai. Bāzāra mēṁ milanē vālī dhūpa kā prayōga na karēṁ.
Pūjā Vidhi
1. Pūjana-pratijñā va svasti (maṅgala) yācanā: Khaṛē raha kara kāyōtsarga karēṁ va vinaya pāṭha paḍhēṁ. Āgē pustaka mēṁ di’ē krama sē anādi-mūla-mantra, cattāri daṇḍaka,. Apavitra: Pavitrō vā…. Kē manda madhura svara mēṁ gāyana kara puṣpa caṛhāyēṁ. Kramaśah Pan̄cakalyāṇaka arghya, pan̄ca-paramēṣṭhī arghya, śrījinasahasranāma arghya aura jinavāṇī kē arghya caṛhāyēṁ. Pūjana-pratijñā pāṭha paṛha puṣpān̄jali karēṁ. Caubīsa tīrthaṅkara svasti yachana vidhāna (śrī vr̥ṣabhō naḥ…), Punaḥ parama-r̥ṣi svasti yachanai vidhāna (nityāprakampād….) Pūrē pūrē paṛhatē jā’ēm̐ va svasti śabda uccāraṇa karatē hī puṣpa caḍhātē jā’ēm̐.
2. Pūjā prārambha : jisa pūjanīya (mūla nāyaka, caubīsa tīrthaṅkara ādi) kī pūjā karanī hō, kama sē kama nau akhaṇḍa puṣpa (kēśariyā Cāvala athavā lauṅga) dōnōṁ hathēliyōṁ kē bīca, banda kamala kē ākāra mēṁ rakha kara, āhvānana-mantra bōlatē hu’ē ākāśa sē una kā āhvāna kiyā jātā hai (pukārā jātā hai) ṭhōnē mēṁ una puṣpōṁ kō sthāpana–mantra bōlatē hu’ē caḍhānā una kē sthāpana (virājanē) kā bhāva dētā hai, aura sannidhikaraṇa-mantra bōlanā unhēṁ hradaya mēṁ basānē kā bhāva dētā hai. Taba hī aṣṭa-dravyōṁ sē pūjā ārambha hōtī hai| (yē tīna mantra aṣṭama vibhakti mēṁ hōtē haiṁ, śēṣa dravyōṁ kē arpaṇa-mantra caturthī vibhakti mēṁ hōtē haiṁ. Bōlatē samaya yahām̐ viśēṣa sāvadhānī āvaśyaka hai).
Nitya-pūjana kē niyama kī pūrti kē li’ē sarva prathama śrī jinēndra dēva kī, śāstrajī kī, va guruvara (gaṇadhara dēva athavā ācārya-upādhyāya-sādhū) kī bhakti pūrvaka pūjana alaga-alaga athavā ēka sātha samuccaya-pūjā kē rūpa mēṁ kī jātī hai. samuccaya pūjā hētu anēkōṁ vaikalpika racanā’ēṁ pracalana mēṁ haiṁ jaisē, prathama dēva…..(Dyānata rāya jī), dēva-śāstra-guru namana kari….(Saccidānandajī), kēvala ravi…..(Yugalajī), nava-dēvatā pūjā (ā. Jñānamatī jī).
3. Aṣṭa-dravyōṁ sē pūjana: Isa mēṁ kramaśaḥ jala, candana, akṣata, puṣpa, naivēdya, dīpa, dhūpa ēvaṁ phala ādi dravyōṁ kē pada ēka ēka kara gātē haiṁ, va usī dravya kā mantra bōla kara vaha dravya caṛhātē haiṁ| isī vidhi sē arghya bhī caḍhātē haiṁ aura pūjita pātra kī guṇamāla (jayamālā) gā kara pūrṇārghya bhī. Tīrthaṅkarōṁ kī pūjā’ōṁ mēṁ una kē pām̐cōṁ kalyāṇakōṁ kē smaraṇa-bhāva sē pratyēka kē arghya bhī caṛhāyē jātē haiṁ| pratyēka pūjā kē anta mēṁ āśīrvāda-mantra paṛha kara pūjita prabhu kē Āśīrvāda svarūpa svayaṁ para puṣpa-kṣēpaṇa kiyā jātā hai| vibhinna pūjā’ōṁ kā krama hara sthāna ēvaṁ samaya anusāra bhinna hō sakatā hai.
Aṣṭa-dravya caḍhātē hu’ē kyā bhāvanā karēṁ:
Pratyēka dravya bhagavāna kē samakṣa arpita karatē hu’ē mana-rūpī sāgara mēṁ nimna prakāra bhakti kī laharēṁ uṭhanī cāhi’ē arthāt bhāvanā bhānī cāhi’ē –
jala caṛhātē samaya: – Hē prabhu! Āpanē janma, jarā ēvaṁ maraṇa samāpta kara diyā hai aura sansāra kē sabhī kaṣṭōṁ sē mukti pāyī hai. Atah Āpa śītala sāgara hō ēvaṁ nirmala jyōti hō. Mujhē bhī sansāra mēṁ bāra-bāra na ānā paṛē ata: Janma-jarā-mr̥tyu kē vināśa hētu maiṁ āpakō jala caṛhātā hūm̐.
Candana caṛhātē samaya: – Hē prabhu! Sansāra kē sabhī prāṇī taraha-taraha kē kaṣṭōṁ sē du:Khī haiṁ. Āpanē ina sabakō samūla naṣṭa kara diyā hai. Mērā bhī cintā’ōṁ kā tāpa aura icchā rūpī dāha samāpta hō jāya. Isī bhāvanā kō lēkara āpa kē samakṣa āyā hūm̐ aura dāha vināśaka candana lāyā hūm̐ ki candana caṛhānē sē mērā bhī sansāra kā dāha aura tāpa samāpta hō jā’ē.
Akṣata caṛhātē samaya: – Hē prabhu! Āpanē sansāra kī saba vyākulatā’ēm̐ ēvaṁ mōha kō naṣṭa kara akṣaya pada prāpta kiyā hai. Mujhē bhī akṣaya pada prāpta hō ata: Maiṁ āpakō samarpaṇa karanē ‘akṣata’ lāyā hūm̐. Maiṁ nivēdana karatā hūm̐ jisa taraha rāgarūpī chilakā cāvala sē alaga hō gayā hai aura yaha dubārā aṅkurita nahīṁ hō sakatā hai, arthāt isakī ātmā kō akṣaya pada kī prāpti hō gai hai. Usī prakāra mērī ātmā sē karmōṁ kā bhāra kṣaya hō Jā’ē aura mujhē bhī akṣaya pada prāpta hō Jā’ē. Isī bhāvanā sē maiṁ akṣata samarpita kara rahā hūm̐.
Puṣpa caṛhātē samaya: – Hē kāma vijayī prabhu! Āpanē sansārī ākarṣaṇōṁ para vijaya prāpta kara lī hai, arthāt kāmādika sānsārikatā kō jīta liyā hai. Jisa taraha puṣpa para ākarṣaṇa hōtā hai aura ākarṣaṇa sē titalī aura bhōnrē usa para baiṭhakara apanī jāna gam̐vātē haiṁ. Usī prakāra maiṁ kāma-vāsanā kī ōra ākarṣita hōkara du:Khī hūm̐. Atah Kāma-bāṇōṁ kē vināśana hētu maiṁ āpakō puṣpa arpita karatā hūm̐ ki maiṁ bhī āpakī taraha isakō jīta sakūm̐ aura mōkṣamārga para baṛha sakūm̐.
Naivēdya caṛhātē samaya: – Hē kṣudhā vijayī! Āpanē bhūkha kē rōga kō samāpta kara diyā hai, bhūkha kō śānta kara liyā hai| maiṁ bhī isa kṣudhā rōga sē pīṛita hūm̐. Anādikāla sē lagē isa kṣudhārōga kō naṣṭa karanē kī icchā sē yaha kṣudhā nivāraka sundara naivēdya āpakō samarpita karatā hūm̐, mērā kṣudhā rōga sadā kē li’ē śānta hō jāyē.
Dīpa caṛhātē samaya: – Hē prabhu! Āpanē apanē āntarika ajñāna mōha andhakāra kā nāśa kara diyā hai. Atah Āpa atula tējayukta hō ga’ē haiṁ. Yaha prakāśa mujhē bhī prāpta hō, tāki maiṁ apanē āpakō jāna sakūm̐, mōha andhakāra kā nāśa kara sakūm̐. Atah Maiṁ laukika ujālā karanē kā pratīka yaha dīpaka āpakē samakṣa samarpita kara rahā hūm̐ ki mujhē bhī mukti patha milē ēvaṁ mōha andhakāra kā nāśa hō.
Dhūpa caṛhātē samaya: – Hē prabhu! Āpanē karma śatru’ōṁ kō apanē tapa kē dvārā naṣṭa kara diyā hai. Maiṁ āpakī śaraṇa āyā hūm̐ ki mērē karma kalaṅka jala jāyēṁ. Atah Dhūpa caṛhānē āyā hūm̐ ki mērē bhī āṭhōṁ karma bhakti-dhūpa kī jvālā sē naṣṭa hō jāyēṁ.
Phala caṛhātē samaya: – Hē prabhu! Āpanē apanē lakṣya parama śānti kō prāpta kara liyā hai. Āvināśī muktirūpī phala kō prāpta kara āpa tō apanē svāda mēṁ magna hō cukē haiṁ. Āpanē jisa phala kō apanē puruṣārtha kē bala sē prāpta kara liyā hai. Usī phala kī prāpti kē li’ē yaha laukika phala āpakē caraṇōṁ mēṁ caṛhānē āyā hūm̐. Mujhē mukti phala prāpta hō jāya yahī āpasē vinatī hai.
Anta mēṁ, arghya caṛhātē samaya: – Hē prabhu! Āpa anarghya-pada vibhūṣita, vītarāga vijñānī kēvalī bhagavāna haiṁ. Āpa jaisā anarghya pada mujhē mērē puruṣārtha sē paidā hō jā’ē, isī bhāvanā sē yaha punīta arghya āpakē caraṇōṁ mēṁ samarpita kara rahā hūm̐.
Pratyēka dravya caṛhātē samaya jō bhāva batā’ē haiṁ, una hī bhāvōṁ sē pūjana karēṁ tō niścita hī bhakta sē bhagavāna bana jā’ēṅgē, sansārī sē mukta bana jā’aiṅgē. Pūjā vītarāga dēva kē li’ē nahīṁ balki apanī nirākulatā prāpti kē li’ē hōtī hai. Bhagavāna kartā yā dātā nahīṁ hai, unakē guṇōṁ mēṁ anurāga-bhakti sē hī saba kārya sid’dha hōtē haiṁ, parantu bhakti kē pravāha mēṁ bhī māṅganā ucita nahīṁ hai.
Manavām̐chita saba kucha milē, śrāvaka jānō sōya..
4. Pūjana-kriyā samāpti –yaha, samuccaya mahārghya caṛhā kara, śāntipāṭha, kāyōtsarga aura visarjana-pāṭha gāyana sē hōtī hai. Pūjā-visarjana kriyā ṭhōnē para akhaṇḍa puṣpa kṣēpaṇa sē hōtī hai. Isakē uparānta ṭhōnē mēṁ pūjita jinavara kē caraṇa-cihna-pratīka puṣpōṁ kē abhiṣēka-bhāva sē kin̄cita jaladhārā karatē haiṁ jisa sē ṭhōnē kā māṇḍanā vilīna hō jātā hai aura yaha jala gandhōdaka kē rūpa mēṁ grahaṇa kiyā jātā hai. Vēdī kī tīna pradakṣiṇā dēnē kē uparānta pañca –paramēṣṭhī āratī kī jātī hai| samaya kī upalabdhatā dhyāna mēṁ rakha mūla nāyaka ādi kī āratī bhī kī jātī hai|
5. Pūjā-pustaka vāpasī – vinaya sahita pūrī pustaka mēṁ phansē cāvala ādi kō acchī taraha sē Jhāṛa lēṁ, pustaka nama hō ga’ī hō tō kucha dēra dhūpa/havā mēṁ rakha dēṁ, phaṭa ga’ī hō tō maram’mata kara dēṁ; phira grantha bhaṇḍāra mēṁ usa kē niścita krama-sthāna para vinaya sahita vāpasa rakhēṁ aura kāyōtsarga kara bhaṇḍāra kē paṭa banda karēṁ.
Cāvala ādi kē dānē paṛē raha jānē sē pūjā pustakōṁ/bhaṇḍāra mēṁ jīvāṇu va cūhōṁ kī sambhāvanā hōtī hai| ataḥ bhalī bhānti dēkha bhāla kara sāvadhānī sē śud’dha pūjā pustakēṁ uṭhā’ēṁ ēvaṁ rakhēṁ| asāvadhānī vaśa, una mēṁ kabhī kabhī aśud’dha pustakādi an’ya sāhitya bhī rakhē dēkhanē mēṁ ātē haiṁ| bhaṇḍāra kī niyamita jān̄ca va jhāḍa-pōn̄cha bhī pūjana kā aṅga hai| ghara sē pūjana kē li’ē ātē samaya pūjā sāmagrī kē sātha ēka pēna aura ḍāyarī avaśya lā’ēṁ, abhiṣēka-pūjana kriyā kē daurāna upajē praśna/śaṅkā va sujhāva nōṭa kara, samādhāna kā udyama karanā pariṇāma-viśud’dhi vardhaka hōtā hai.